सदान की अवधारणा (Concept of Sadan)
झारखण्ड के सदान : झारखण्ड राज्य में सामान्यतः गैर–जनजातियों को सदान कहा जाता है किन्तु ऐसा है नहीं; सभी गैर–जनजातियां सदान नहीं हैं। वास्तव में सदान झारखण्ड की मूल गैर जनजाति लोग हैं।
व्युत्पत्ति की दृष्टि से ‘सदान‘ शब्द एक तद्धित शब्द है जो सद+आन से बना है। सद का कोषगत अर्थ है बैठना, विश्राम करना, बस जाना। इस प्रकार ‘सदान‘ शब्द का अर्थ होगा ऐसे लोग जो यहां बैठे हुए थे या बसे हुए थे। सदानी भाषा नागपुरी में घर में बसने वाले कबूतर को ‘सदपरेवां‘ कहा जाता है और जंगली कबूतर को या घर में नहीं रहने वाले कबूतर को ‘बनया कबूतर‘ कहा जाता है। ठीक इसी प्रकार सदपरेवां की तरह सदानों को समझना चाहिये और बनया कबूतर की तरह वनवासी या आदिवासियों को समझना चाहिये। दोनों के लक्षण और चरित्र कुछ भिन्न हैं। अतः इसे समझने के लिए तुलनात्मक अध्ययन की आवश्यकता है : –
- आदिवासी कबीलाई होते हैं जबकि सदान समुदायी होते हैं।
- आदिवासी घुमन्तु स्वभाव के लोग हैं किन्तु कुछ कबीलाई लोग अब स्थायित्व प्राप्त करने लगे हैं जबकि सदान स्वभावतः घुमन्तु नहीं हैं, इनका स्वभाव स्थायी रहा है।
- कई आदिवासी अनुसूचित नहीं हैं जबकि कई सदान जनजाति के रूप में अनुसूचित हैं।
भाषायी दृष्टि
भाषायी दृष्टि से वह गैर जनजातीय व्यक्ति जिसकी भाषा मौलिक रूप से (मातृभाषा की तरह) खोरठा, नागपुरी, पंचपरगनियां और कुरमाली है वहीं सदान हैं। डॉ बी.पी केशरी मानते हैं कि इन भाषाओं का मूल रूप नागजाति के विभिन्न कबीलों में विकसित हुआ होगा। किन्तु ऐसा प्रतीत होता है कि भाषा केवल एक जाति तक सीमित नहीं रहती है अतः नाग दिसुम में नागराजा होंगे तो प्रजा के रूप में केवल नाग लोग ही तो नहीं रहे होंगे। अन्य जातियां भी रहीं होंगी और ये भाषाएं उनकी भी भाषाएं रही होंगी।
धार्मिक दृष्टि
धार्मिक दृष्टि से हिन्दू ही प्राचीन सदान हैं। इस्लाम का उद्भव 600 ई. में हुआ किन्तु इनका झारखण्ड आगमन 16वीं सदी में ही हो सका। इनसे पूर्व के जैन धर्मावलम्बी भी सदान हैं। इस प्रकार आज इन सभी धर्मावलंबियों की मातृभाषा जैनी और उर्दू या अरबी फारसी न होकर खोरठा, नागपुरी, पंचपरगनिया, कुरमाली आदि ही है चाहे वह किसी भी धर्म का हो और तभी वह सदान है। जिसकी मातृभाषा सादरी नहीं है वह सदान कैसे हो सकता है?
प्रजातीय दृष्टि
प्रजातीय दृष्टि से सदान आर्य माने जाते हैं। कुछ द्रविड वंशी भी सदान हैं और यहां तक कि कुछ आग्नेय कुल के लोग भी सदान हैं। आग्नेय कुल के लोग सदान इसलिए हैं क्योंकि इनकी भाषा आदि सादरी रही है तथा आग्नेय कुल के होते हुए भी इन्हें अनुसूचित नहीं किया गया है। ठीक उसी तरह जैसे की कुछ अनुसूचित लोग स्वयं को आग्नेय कुल का नहीं मानते हैं न ही प्रोटो–ऑस्ट्रोलायड मानते हैं। वे अपने को राजपूत कहते हैं।
पुरातात्विक अवशेषों से ज्ञात होता है कि असुर से पहले भी कोई एक सभ्य प्रजाति यहां आयी थी। अतः ऐसा प्रतीत होता है कि वह सभ्य प्रजाति सदानों की होगी जो यहां की मूलवासी (Aborigines) थी। आखिर असुरों का लोहा गलाना क्या अपने लिए ही था? इतनी अधिक मात्रा में । लोहा का उत्पादन कोई अपने लिए ही नहीं करता है। असुरों के बाद मुण्डा और उसके बहुत बाद उरांव आते हैं तो ऐसा लगता है सदान उनके यहां आने के पूर्व से ही बसे हुए थे। मुण्डा और उरांवों का स्वागत सदानों ने किया होगा। इसी प्राचीनता की दृष्टि से सदान को कई कालों में विभाजित किया जा सकता है :
- असुर से पूर्व वास करने वाली एक सभ्य प्रजाति जिसकी चर्चा इतिहासकार/मानव शास्त्री करते हैं, संभवतः वे सदान ही हों।
- असुरों के काल के सदान तथा मुण्डाओं से पूर्व आकर बसे हुए सदान या अपने पूर्वजों से उत्पन्न हुए सदान की सामान्य जनसंख्या।
- मुण्डाओं के साथ या उनके बाद आये सदान जो उरांव से पूर्व काल के थे।
- उरांवों के साथ या उनके बाद आये सदान और पूर्वजों से विकसित सदान जनसंख्या
- मुगल काल और ब्रिटिश काल के आये लोग।
- आजादी के बाद आकर बसे हुए गैर आदिवासी जिनमें सदानों के लक्षण दिखाई नहीं पड़ते हैं। स्मरणीय है आजकल अंग्रेजों के साथ-साथ उनके द्वारा लाये गये अन्य शोषकों को (ठेकेदार आदि) तथा आजादी के बाद आये गैर जनजातीय लोगों को दिकू कहा जाने लगा।
जातीय दृष्टि से सदानों के प्रकार :
- वैसी जातियां जो देश के अन्य हिस्सों में हैं और झारखण्ड क्षेत्र में भी हैं – ब्राह्मण, राजपूत, तेली, माली, कुम्हार, सोनार, कोयरी, अहीर, बनियां, डोम, चमार, दुसाध, ठाकुर और नाग जाति आदि।
- वैसी जातियां जो केवल छोटानागपुर में ही मिलती हैं – बड़ाईक, देसावली, पाइक, धानुक, राउतिया, गोड़ाईत, घासी, भुइयां, पान, परमाणिक, तांती, स्वासी, कोस्टा, झोरा, रक्सेल, गोसाई, बरगाहा, बाउरी, भाट, बिंद, कांदु, लोहड़िया, खंडत, सराक, मलार आदि।
- कई सदान जातियां ऐसी हैं जिनका गोत्र अवधिया, कनौजिया, तिरहुतिया, गौड़, पूर्विया, पछिमाहा, दखिनाहा आदि है। जिससे पता चलता है कि इनका मूल स्थान यहां न होकर कहीं बाहर है।
- परन्तु कुछ जातियां ऐसी हैं जिनका गोत्र स्थानीय आदिवासी समुदायों की तरह है जिससे इनका मूल स्थान छोटानागपुर ही होगा यह माना जा सकता है।
सदानों की सामाजिक एवं सांस्कृतिक रूपरेखा :
सदान और आदिवासी दोनों झारखण्ड के मूल निवासी हैं और उनकी संस्कृति साझा एवं एक-दूसरे से मिलजुल कर रहने की संस्कृति है।
धर्म – सदानों में सराक नामक एक छोटे क्षेत्र में अवस्थित जाति जैन धर्म से प्रभावित है। वे सूर्यास्त के बाद भोजन नहीं करते हैं तथा मांस, मछली का सेवन नहीं करते हैं। ये लोग सूर्य एवं मनसा के उपासक हैं। कुछ सदान वैष्णव परम्परा से प्रभावित हैं। 16वीं सदी के बाद से इस्लाम धर्मावलंबी भी यहां बस गये जो कालान्तर में सदान कहे गये। हिन्दुओं में देवी–देवता की पूजा–अर्चना ही धार्मिक परम्परा है। इसके अतिरिक्त प्रत्येक सदान कुल देवी–देवता की पूजा–अर्चना करते. हैं। हिन्दू, मुस्लिम, जैन, वैष्णव, कबीरपंथी जैसे विविध धर्मावलम्बियों के कारण एक ओर गुरु पुरोहित की परम्परा है तो दूसरी ओर मुल्ला –मौलवियों की प्रथा भी है। यह कहना अप्रासंगिक कतई नहीं है कि सदानों की धार्मिक परम्परा में कही पुरोहित और कर्मकांड भी व्याप्त है तो किसी अन्य क्षेत्र के सदानों में इस कर्मकाण्ड का लेशमात्र भी नहीं दिखाई देता है।
शारीरिक गठन – सदानों के शारीरिक गठन में आर्य, द्रविड एवं आस्ट्रिक तीनों के कमोवेश लक्षण दिखाई पड़ते हैं। फिर भी ये आदिवासियों से बिलकुल भिन्न दिखाई पड़ते हैं। सदानों में गोरे, काले और सांवले तीनों रंग दिखाई पड़ते हैं। ऊंचाई में नाटे, मध्यम एवं लम्बे तीनों इनमें दिखाई पड़ते हैं।
वेशभूषा – सदानों में धोती, कुर्ता, गमछा, चादर प्रचलित थे किन्तु वर्तमान समय में उपर्युक्त वस्त्रों के अतिरिक्त पैंट, शर्ट, कोट, टाई, पायजामा, सलवार, कुर्ता, साड़ी आदि प्रायः सभी तरह के बिहार और बंगाल के प्रचलित वस्त्र धारण करते दिखाई पड़ते हैं।
आभूषण – बंगाल, बिहार में प्रचलित आभूषण सदानों में खूब प्रचलित हैं। यही नहीं आदिवासियों में प्रचलित कुछ आभूषण सदानों में भी प्रचलित हैं। पोला, साखा, कंगन, बिछिया, हार, पईरी, हंसली, कंगना, सिकरी, छूछी, बुलाक, बेसर, नथिया, तरकी, करन फूल, मंगटीका, पटवासी, खोंगसो आदि आभूषण महिलाओं में प्रचलित हैं। सदानों में आदिवासियों की तरह गोदना का भी प्रचलन है।
गृहस्थी के सामान – आजकल स्टील, प्लास्टिक, हेंडालियम एवं अल्यूमिनियम के सामान प्रायः गांव से शहर तक सभी सदानों के घरों में दिखाई पड़ते हैं। किन्तु गांवों में अभी भी 60 प्रतिशत सदान आदिवासी मिट्टी के बर्तनों का प्रयोग करती हैं। घरों में हंडिया, गगरी, चुका, ढकनी अवश्य दिखाई पड़ते हैं। सदानों में पीतल और कांसा के बर्तन रखना समृद्धि का द्योतक माना जाता है। सामूहिक भोज में पत्तल, दोना का ही प्रचलन है।
खेतीबारी के सामनों में सदान और आदिवासियों के उपकरणों का नाम एक ही है।
शिकार के औजार – सदानों में भी शिकार वैसे ही प्रचलित है जैसे आदिवासियों में। मछली मारने के लिए जाल, कुमनी, बंसी डांग, पोलई,घोघी, आदि औजार हैं तो तीर–धनुष और तलवार, भाला, लाठाचोंगी, गुलेल आदि भी औजार होते हैं। सदानों में बंदूक रखने की प्रथा जमींदारी के कारण रही है। अब यह प्रचलन कम हुआ है।
नातेदारी – सदान समाज पितृ सत्तात्मक होता है। अतः पिता के बड़े भाई को बड़ा या बड़का बाबूजी कहते हैं। माता की बहन मौसी है। पिता को छोटा भाई कका या पितिया। पिता के पिता दादा, पिता की मा दादी। मातृकुल में मां का भाई मामा, मां के पिता नाना कहे जाते हैं। मातृ–पितृ कुल में वैवाहिक संबंध वर्जित है। मजाक वाले रिश्ते में बड़े भाई का पत्नी भौजी, बहन के पति बहनोई या भाट, पति के छोटे भाई देवर, पत्नी की छोटी बहन साली के साथ–साथ दादा–दादी, नाना–नानी भा मजाक वाले संबंध हैं।
पर्व-त्योहार – पर्व–त्योहार सदानों की पहचान के लिए बहुत बड़ा आधार है। सदानों के त्योहार वही हैं जो आदिवासियों के लिए भी है। होली, दीवाली, दशहरा, काली पूजा के अतिरिक्त जितिया, सोहराय, करमा, सरहुल, मकर संक्रांति, टुसू, तीज आदि सदानों के प्रमुख पर्व–त्योहार हैं। मुसलमान ईद, मुहर्रम आदि मनाते हैं ।
नृत्य एवं गीत – सदानों के गांवों की पहचान अखरा से होती है। अखरा आदिवासियों की तरह सदानों के गांवों में भी होते हैं। मधुकरपुर गांव (जिला बोकारो) में नृत्य गीत संबंधी जो सूचना मिलती है उसके आधार पर यह स्पष्ट है कि करम उत्सव में लड़कियों का सामूहिक नृत्य अखरा में होता है। जावा जगाने के लिए प्रति रात नृत्य होता है। इसके अतिरिक्त शादी विवाह में भी महिलाएं नृत्य करती हैं। डमकच, झूमटा, झूमर आदि सामूहिक नृत्य हैं जो आम महिलाएं अखरा में या घर–आंगन में करती हैं। इसके अतिरिक्त छउ नृत्य, नटुआ, नृत्य, नचनी नृत्य, घटवारी नृत्य, महराई आदि विविध प्रकार के नृत्य होते हैं।
सदानों के गीत कई प्रकार के होते हैं जिसके राग भी उन्हीं के नाम अथवा. सुर के नाम पर नामित हैं। गीतों के प्रकार निम्नलिखित हैं – डमकच, झुमटा, अंगनाई या जनानी झूमर, सोहर, विवाह गीत, मरदानी झूमर, रंग, फगुआ, पावस, उदासी, सोहराय आदि।
निष्कर्षतः सदान, आदिवासियों के समकालीन, कहीं उनसे भी प्राचीन समुदाय है जो झारखण्ड का मूल निवासी है। यह समुदाय स्वदेशी संस्कृति से आवृत विभिन्न जातियों, धर्मों का समूह है जो खोरठा, नागपुरी, पंचपरगनिया और कुरमाली भाषाएं बोलता है। अंग्रेजों ने आदिवासियों और सदानों की आपसी मित्रता देखकर इनमें कई तरह से दरार उत्पन्न करने की चेष्टा की। उन्हें इसमें आंशिक सफलता भी मिली। आज समय की जरूरत है कि झारखण्ड के निवासी यह समझे की यहां का इतिहास क्या है, आदिवासियों का इतिहास क्या रहा है और सदानों की सहभागिता झारखण्ड में क्या रही है, दिकू कौन हैं, दिकू की सही परिभाषा क्या हो सकती है।