सरना धर्म या आदि धर्म : सरना (Adi dharnta: Sarana)
जनजातियों की अपनी एक अलग पहचान, विश्वास और आस्था होती है। वे अलौकिक शक्ति सिंगबोंगा में विश्वास प्रकट करते हैं। बोंगां का वास साल के पेड़ में होता है। सरना धर्म की उत्पत्ति की कहानी अत्यंत रोचक है। संथाल समुदाय के पौराणिक कथा के अनुसार एक बार संथाल लोग शिकार पर जंगल की ओर गये थे और वे सृष्टि के निर्माता और ‘संरक्षक‘ जैसे मुद्दे पर विवाद करने लगे। उन्होने स्वयं से प्रश्न किया की ईश्वर कौन है? सूरज हवा या बादल। अन्त में उन्होने निश्चय किया की वे एक तीर छोड़ेंगे जहां पर तीर जाकर गिरेगा वहीं ईश्वर का निवास होगा और उन्होने आकाश की ओर एक तीर छोड़ा जो की एक साल वृक्ष के नीचे जाकर गिरा और वे तब से उस वृक्ष की पूजा करने लगे और उन्होंने अपने धर्म का नाम सरना दिया क्योंकि यह साल के वृक्ष से प्रारंभ किया गया। इस प्रकार सरना धर्म अस्तित्व में आया। प्रत्येक संथाल गांव में एक पुजारी नायके और उसका सहायक कुडम नायक होता है।”
झारखण्ड में हिन्दू धर्मावलम्बियो की संख्या सर्वाधिक (68.6 %) है किन्तु हिन्दू जनजाति मात्र 39.8% हैं। जनजातीय आबादी की 45% जनसंख्या दूसरे धर्मो और सिद्धान्तों का पालन करती है। ईसाई जनजाति की आबादी राज्य में 14.5% और आधा प्रतिशत से भी कम (0.4%) मुस्लिम हैं। बड़े जनजातीय समूहों में संथालों की संख्या कुल जनजातीय आबादी का आधा से अधिक (56.6%) है जो सरना धर्म को मानते हैं। उरांव और मुण्डाओं की आबादी का 50% से अधिक लोग दूसरे धर्मों खासकर इसाई धर्म से प्रभावित हैं। हो जनजाति का अनुपात 91% उनलोगों में सर्वाधिक है जो सरना धर्म या साढ़ी धर्म (सच्चा धर्म) के अनुयायी हैं। भारत के जनजातीय लोगों का मूल धर्म सरना माना जाता है।
उनका अपना पूजन भूमि होता है जिसे सरना स्थल या जाहेर के नाम से जाना जाता है। उनका एक धार्मिक झंडा होता है जिसे सरना झंडा के नाम से जाना जाता है जिसे रांची जिला में बड़ी संख्या में देखा जा सकता है। सरहुल त्योहार के दिन उरांव लोग रांची में जमा होते हैं और बड़े रैली का आयोजन करते हैं। ऐसे अवसर पर रांची में प्रत्येक जगह सरना संग देखा जा सकता है। उनका धर्म मौखिक परम्पराओं से प्रेरित है. जो कि एक पीढ़ी से दूसरी पीढ़ी को हस्तांतरित होता गया। उनका धर्म एवं सिद्धांत बहुत ही गहरायी से संस्कृति एवं परम्परा से जुड़ा हुआ है जो कि इस संसार और प्रकृति की शक्ति की सर्वोच्चता में दृढ़ आस्था रखता है। वे एक ही ईश्वर धर्मेश में अपना विश्वास प्रकट करते हैं जो सर्वोच्य सर्व शक्तिमान और महान है और वह सम्पूर्ण विश्व को नियन्त्रित करता है। यह धर्मश साल वृक्ष में निवास करता है।
उनके दर्शनशास्त्र के अनुसार भगवान धर्मेश अत्यंत शक्तिशाली और महत्त्वपर्ण देवता हैं। वह सम्पूर्ण विश्व का निर्माता होने के साथ–साथ लोगों के संरक्षक भी हैं। वास्तव में वे ही सम्पूर्ण विश्व को नियमित तथा नियंत्रित करते हैं। कुडुख में धर्मेश का सामान्य अर्थ सर्वशक्तिमान
होता है जिसे महादेव भी कहा जाता है। महान धर्मेश को सफद वस्तु की बलि चढाई जाती है, जैसे–सफेद बकरा, सफेद पंक्षी, सफद गुलनाचा फूल, सफेद कपड़ा, चीनी, दुध आदि। वास्तव में उरांव जनजातियों में सफेद रंग पवित्र माना जाता है।
अनेक महत्वपूर्ण देवी–देवताओं के बीच सरना देवी अत्यन्त महत्वपूर्ण एव सम्मान योग्य है। ऐसी मान्यता है कि साल वृक्ष सरना देवी का निवास स्थान है और वे उरांव जनजातियों की रक्षा और पालन करती ह। सरहुल पव क दिन पाहन देवी की पूजा सम्पन्न कराते ह। सरना धर्म के अनुसार देवा, चाला कुट्टी स्थान में पाहन के पास रखे लकडी के सूप में वास करती है। कुट्टा नामक स्थान में साल या बांस की लकड़ी के बने छड़ी को गढ़ा जाता है जहां देवी के सूप को रखा जाता है।
सरना स्थल में साल वृक्ष के नीचे जनजातीय लोग अपने संस्कारों को पूरा करते हैं जिसे जाहेर नाम से भी जाना जाता है। उरांव लोगों के गांवों में कोई भी व्यक्ति पवित्र धार्मिक स्थल सरना को देख सकता है जहां पवित्र साल और दूसरे वृक्ष भी होते हैं। कभी कभी ‘जाहेर‘ गांव में न होकर समीप के जंगल में स्थित होता है।
सरना स्थल (जाहेर) सम्पूर्ण ग्राम के लिए एक पवित्र स्थान होता है और गांव के सभी सामाजिक एवं धार्मिक समारोहों को यहां सम्पन्न किया जाता है। इन समारोहों में गांवों के सभी लोग हर्षोल्लास के साथ भाग लेते हैं जिसमें गांव के पुजारी ‘पाहन‘ और उसका सहयोगी पूजार या पनभारा की भूमिका महत्वपूर्ण होती है।
सरना संस्कृति (Sarana Culture)
सच कहा जाए तो सरना एक धर्म से अधिक आदिवासियों के जीने की पद्धति है जिसमें लोक व्यवहार के साथ पारलौकिक आध्यात्मिकता या आध्यात्म भी जुड़ा हुआ है। आत्म और परम–आत्म का आराधना लोक जीवन से इतर न होकर लोक और सामाजिक जीवन का ही एक भाग है। धर्म यहां अलग से विशेष आयोजित कर्मकांडीय गतिविधियों के उलट जीवन के हर क्षेत्र में सामान्य गतिविधियों में गुंफित रहता है।
प्रकृति की उपासना का धर्म :

सरना अनुगामी प्रकृति का पूजन करता है। वह घर के चुल्हा, बैल, मुर्गी, पेड़, खेत खलिहान, चांद और सरज सहित सम्पूर्ण प्राकृतिक प्रतीकों का पूजन करता है। वह पेड़ काटने के पूर्व पेड़ से क्षमा याचना करता है। गाय, बैल बकरियों का जीवन सहचार्य होने के लिए धन्यवाद देता है। पूरखों को निरंतर मार्ग दर्शन और आशीर्वाद देने के लिए भोजन करने, पानी पीने के पूर्व उनका हिस्सा भूमि पर गिरा कर देते हैं। धरती माता को प्रणाम करने के बाद ही खेतीबारी के कार्य शुरू करते हैं।
आप प्रकृति के प्रति अपनी श्रद्धा की अभिव्यक्ति कहीं भी कर सकते हैं या कहीं भी न करें तो भी आपको कोई मजबूर नहीं करेगा. क्योंकि हर व्यक्ति की भक्ति की शक्ति या शक्ति की भक्ति के अपनी अवधारणाएं हैं। एक समूह का अंग होकर भी आपके “वैचारिक और मानसिक व्यक्तित्व‘‘ समूह से इतर हो सकता है। अपने वैयक्तिक अवधारणा बनाए रखने और उसे लोक व्यवहार में प्रयोग करने के लिए आप स्वतंत्र है। यही सरना धर्म की अपनी विशेषता और अनोखापन है।
उपासना पद्धति में खुलापन :
इसके पूजन पद्धति में कहीं भी रूढ़ीवादिता नहीं है। कोई भी सरना लोक और परलोक के प्रतीकों में से किसी का भी पूजन कर सकता है और किसी का भी न करे तो भी वह सरना ही होता है। कोई किसी एक पेड़ की पूजा करता है तो जरूरी नहीं कि दूसरा भी उसी पेड़ का पूजन करे। दिलचस्प और ध्यान देने वाली बात तो यह है कि जो आज एक विशेष पेड़ की पूजा कर रहा है जरूरी नहीं कि वह कल भी उसी पेड़ की पूजा करे। यहां पेड़ किसी मंदिर, मस्जिद या चर्च की तरह रूढ़ नहीं है। वह तो विराट प्रकृति का सिर्फ एक प्रतीक है और हर पेड़ प्रकृति का जीवंत प्रतीक है, इसलिए किसी एक पेड़ को रूढ़ होकर पूजन करने का कोई मतलब नहीं। अमूर्त शक्ति की उपासना के लिए एक मूर्त प्रतीक की सिर्फ आवश्यकतावश वह उस या इस पेड़ का पूजन करता है।
लिखित ग्रंथ से मुक्त स्वच्छंद उपासना :
सरना धर्म किसी धार्मिक ग्रंथ और पोथी का मोहताज नहीं है। पोथी आधारित धर्म में अनुगामी नियमों के खूटी से बांधा गया होता है। जहां अनुगामी एक सीमित दायरे में अपने धर्म की प्रैक्टिस करता है। जहां वर्जनाए हैं, सीमा है, खास क्रिया क्रमों को करने के खास नियम और विधियां हैं, जिसका प्रशिक्षण खास तरीके से दिया जाता है। पोथीबद्ध धर्म के इत्तर सरना धार्मिकता के उच्च व्यक्तिगत स्वतंत्रता की गारंटी देयता का धर्म है। जहां सब कुछ प्रकृति से प्रभावित है और सब कुछ प्रकृतिमय है। कोई नियम, वर्जनाएं नहीं है। आप जैसे हैं वैसे ही बिना किसी कृत्रिमता के सरना हो सकते हैं और प्राकृतिक ढंग से इसे अपने जीवन में अभ्यास कर सकते हैं। जीवंत और प्राणमय प्रकृति, जो जीवन का अनिवार्य अंग है, आप उसके एक अंग है। आप चाहें तो इसे मान्यता दें या न दें। आप पर किसी तरह की बंदिश नहीं है। यह किसी रूढ़ बनाए या ठहराए गए धार्मिक, सामाजिक या नैतिक नियमों से संचालित नहीं होता है। आप या तो सरना स्थल में पूजा कर सकते हैं या जिंदगी भर न करें। यह आपके व्यक्तिगत स्वतंत्रता का भरपूर सम्मान करता है। आप चाहें तो अपने बच्चों को सरना स्थल में ले जाकर वहां प्रार्थना करना सिखाए : या न सिखाएं। कोई आप पर किसी तरह की मर्जी को लाद नहीं सकता है।
इसमें व्यक्ति धार्मिक, सामाजिक और ऐच्छिक रूप से स्वतंत्र है। आपको पकड़ कर न कोई प्रार्थना रटने के लिए कहा जाता है न ही आपको ‘किसी प्रकार से मजबूर किया जाता है कि आप धार्मिक स्थल जाएं और वहां अपनी हाजिरी लगाएं और कहे गए निर्देशों का पालन करें। सरना धर्म के कर्म कांड करने के लिए कहीं किसी को न प्रोत्साहन किया जाता है न ही इससे दूर रहने के लिए किसी का धार्मिक और सामाजिक रूप से तिरस्कार और बहिष्कार किया जाता है। सरना धर्म किसी को धार्मिक, मानसिक. मनोवैज्ञानिक और सामाजिक रूप से नियंत्रित नहीं करता है और न ही उन्हें अपने अधीन रखने कि लिए किसी भी तरह के बंधन बना कर उन पर थोपता है।
सरना धर्म में धर्मातरण की औपचारिकता नहीं :
सरना बने रहने के लिए कोई नियम या सीमा रेखा नहीं बनाया गया है। इसमें घुसने के लिए या बाहर निकलने के लिए आपको किसी अंतरण अर्थात (धर्मातरण) करने की जरूरत नहीं है। कोई किसी धार्मिक क्रिया–कलाप में शामिल न होते हुए भी सरना बन के रह सकता है उसका धार्मिक झुकाव या कर्मकांड में शामिल नहीं होने या दूर रहने के लिए कोई सवाल जवाब नहीं किया जाता है। सरना धर्म का कोई पंजी या रजिस्टर नहीं होता है। इसके अनुगामियों के बारे कहीं लेखा जोखा नहीं रखा जाता है, न ही किसी धार्मिक नियमों से संबंधित जवाब के न देने पर नाम ही काटा जाता है।
सरना बनने के लिए किसी जाति में जन्म लेने की जरूरत नहीं है। वह उरांव, मुण्डा, हो, संथाल, खड़िया, महली या चिक–बडाइक कहीं का के भी आदिवासी, मसलन, उड़ीसा, छत्तीसगढ़, महाराष्ट्र, गुजरात या केरल के हो, जो किसी अन्य किताबों, ग्रंथों, पोथियों आधारित धर्म नई मानता हैऔर जिसमें सदियों पुरानी जीवनयापन के अनुसार जिंदगी और समाज चलाने की आदत रही है सरना या प्राकृतिक धर्म का अनुगामी कहा जा सकता है। क्योंकि उन्हें नियन्त्रित करने वाले न तो कोई संगठन है, समुदाय है न ही उन्हें मानसिक और मनोवैज्ञानिक रूप से नियंत्रण में रखने वाला बहुत चालाकी से लिखी गयी किताबें हैं। कोई भी आदमी सरना बन कर जीवनयापन कर सकता है क्योंकि उसे किसी धर्मातरण के क्रिया-कलापों से होकर गुजरने की जरूरत नहीं है।
व्यक्तिगत स्वतंत्रता का हिमायती :
सरना अनुगामी जन्म से मरण तक किसी तरह के किसी निर्देशन, संरक्षण, प्रवचन, मार्गदर्शन या नियंत्रण के अधीन नहीं होते हैं। उसे धार्मिक रूप से आग्रही या पक्का बनाने की कोई कोशिश नहीं की जाती है। वह धार्मिक रूप से न तो कट्टर होता है और न ही धार्मिक रूप से कट्टर बनाने के लिए उसका ब्रेनवाश किया जाता है। क्योंकि ब्रेनवाश करने, उसे धार्मिकता के अध-कुंए में धकेलने के लिए कोई तामझाम या संगठन होता ही नहीं है। इसीलिए इसे प्राकृतिक धर्म भी कहा गया है। प्राकृतिक अर्थात् जो जैसा है वैसा ही स्वीकार्य है। इसे नियमों और कर्मकांडों के अधीन परिभाषित भी नहीं किया गया है। क्योंकि इसे परिभाषा से बांधा नहीं जा सकता है।
जन्म, विवाह मृत्यु सभी संस्कारों में उनकी निष्ठा का कोई परिचय न तो लिया जाता है न ही दिया जाता है। हर मामले में वे किसी आधुनिक देश में लागू किए सबसे आधुनिक संवैधानिक प्रावधानों के अनुसार ही (समता-स्वतंत्रतापूर्ण जीवन जीने जैसे मूल अधिकार की तरह) सदियों से व्यक्तिगत और सामाजिक स्वतंत्रता का उपभोग करते आ रहा है। उसके लिए कोई पर्सनल कानून नहीं है। वह शादी भी अपनी मर्जी जिसमें सामाजिक मर्जी स्वंय सिद्ध रहता है,से करता है और तलाक भी अपनी मर्जी । से करता है। लड़कियां सामाजिक रूप से लड़कों की तरह ही स्वतंत्र होती है। धर्म उनके किसी सामाजिक कार्यों में कोई बंधन नहीं लगाता है।
पुजारी का समाज में विशिष्ट दर्जा नहीं :
सरना धर्म में सरना अनुगामी खुद ही अपने घर का पूजा पाठ या धार्मिक कर्मकांड करता है। लेकिन सार्वजनिक पूजापाठ जैसे सरना स्थल में पूजा करना, करम और सरहूल में पूजा करना, गांव देव का पूजा या बीमारी दूर करने के लिए गांव का पूजा या बीमारी दूर करने के लिए गांव की सीमा पर किए जाने वाले डंगरी पूजा वगैरह पाहन करता है। पहान का चुनाव विशेष प्रक्रिया जिसे थाली और लोटा चलाना कहा जाता है के द्वारा किया जाता है। जिसमें चुने गए व्यक्ति को पाहन की जिम्मेदारी दी जाती है। लेकिन अलग अलग जगहों में पृथक ढंग से भी पाहन का चुनाव किया जाता है। चुने गए पाहन . पहनाइ जमीन पर खेती बारी कर सकता है या उसे चारागाह बनाने के लिए छोड़ सकता है। उल्लखनीय है कि सरना पहान सिर्फ पूजा पाठ करने के लिए पहान होता है। वह समाज को धर्म का सहारा लेकर नियंत्रित नहीं करता है। वह हमेशा पाहन की भूमिका में नहीं रहता है। वह सिर्फ पूजा करते वक्त ही पहान होता है। पूजा की समाप्ति पर अन्य सामाजिक सदस्यों की तरह ही रहता है और सबसे व्यवहार करता है। वह पाहन होने पर कोई विशिष्टता प्राप्त नागरिक नहीं होता है। अन्य धर्मों में पूजा करने वाला च्यवित न सिर्फ विशिष्ट होता है बल्कि वह हमेशा उसी भूमिका में समाज के सामने आता है और आम जनता को उसे विशिष्ट सम्मान अदा करना पड़ता है। सम्मान नहीं अदा करने पर धार्मिक रूप से “उदण्ड” व्यक्ति को सजा दा जा सकता है, उसकी निन्दा की जा सकती है। पाहन धार्मिक कार्य के लिए कोई आर्थिक लाभ नहीं लेता है। वह किसी तरह का चंदा भी नहीं लेता है। वह अपनी जीविकोपार्जन स्वयं करता है और समाज पर आश्रित नहीं रहता है।
सरना धर्म हिन्दू धर्म का हिस्सा नहीं :
कई लोग अनजाने में या विशेष प्रयोजनवश सरना धर्म को हिन्दू धर्म का एक भाग कहते हैं और सरना आदिवासियों को हिन्दू कहते हैं, लेकिन दोनों धर्मों में कई विश्वास या कर्मकांड एक सदृष्य होते हुए भी दोनों बिल्कुल ही जुदा हैं। यह ठीक है कि सदियों से सरना और हिन्दू धर्म सहअस्तित्व में रहते आए हैं इसलिए कई बातें एक सी दिखती है। लेकिन आदिवासी सरना और हिन्दू धर्म के बीच 36 का आंकड़ा है। आदिवासी धर्म में मूल्य, विश्वास तथा आध्यात्म हिन्दू धर्म से बिल्कुल जुदा हैं, इसलिए किसी आदिवासी का हिन्दू होना मुमकिन नहीं है। हिन्दू धर्म कई किताबों पर आधारित है और उन किताबों के आधार पर चलाए गए विचारों से यह संचालित होता है जबकि इन किताबों के लिए आदिवासियों के मन में सम्मान नहीं है। इन किताबों में आत्मा, पुनर्जन्म, सृष्टि और उसका अंत, चौरासी कोटी देवी–देवता, ब्राह्मणवाद की जमींदारी और मालिकाना विचार आदि केन्द्र बिन्दु है। यह जातिवाद का जन्मदाता और पोषक है और सामंतवाद को यहां धार्मिक मान्यता प्राप्त है। यहीं हिन्दू धर्म सरना धर्म के उलट रूप में प्रकट होता है। ब्राह्मणवाद और जातिवाद से पीड़ित यह जबरदस्ती बहुसंख्यक, कर्मवीर और श्रमशील लोगों को नीचे घोषित करता है और लौकिक और परलौकिक विषयों की ठेकेदारी ब्राह्मणं और उनके मनोवैज्ञानिक उच्चता का बोध कराने के लिए बनाए गए नियमों को सर्वोच्चता प्रदान करता है। यह वैज्ञानिक, मनोवैज्ञानिक रूप ये अत्यंत अन्यायकारी और दृष्टतापूर्ण है। इंसानों को अन्यायपूर्ण रूप से धार्मिक भावनाओं के बल पर जानवरों की तरह गुलाम बनाने के हर औजार इन किताबों में मौजूद हैं।
ऐसा धार्मिक नियम, परंपरा और लोकव्यवहार सरना समाज में मोजूद नहीं है। सरना समाज में जातिवाद और सामंतवाद दोनों ही नहीं है। यहां सिर्फ समुदाय है, जो न तो किसी दूसरे समुदाय से उच्च है न नीच है। सरना धर्म के समता के मूल्य और सोच के बलवती होने के कारण किसी समुदाय का शोषण का कोई सोच और मॉडल न तो विकसित हुई है और न ही ऐसे किसी प्रयास की मान्यता मिली है।
कई लोग आदिवासियों के हनुमान और महादेव के पूजन को हिन्दू धर्म से जोड़कर इसे हिन्दू सिद्ध करना चाहते हैं। लेकिन सरना वालों ने कहीं इसका मंदिर न तो खुद बनाए हैं न ही सामाजिक धर्म और पर्वो में इनके घरों में पूजा की जाती हैं। ऐतिहासिक रूप से अभी तक कुछ स्पष्ट नहीं हो पाया है लेकिन अनेक विद्वान हनुमान और महादेव को प्राग आदिवासी मानते हैं। हजारों सालों से एक ही धरती पर निरंतर साथ रहने के कारण दोनों के बीच कहीं अंतरण हुआ होगा। लेकिन आदिवासी हिन्दू नहीं है यह स्पष्ट है। सरना धर्म को विकृत करने का प्रयास : हाल ही में हिन्दुत्व, क्रिश्चिनिटिं, इस्लाम से प्रभावित कुछ उत्साही जो अपने को सरना के रूप में परिचय देते है, लोगों ने सरना को परिभाषित करने, उसका कोई प्रतीक चिन्ह, तस्वीर, मूर्ति, मठ, पोथी आदि बनाने की कोशिश की है जिसे निहायत ही आईडेंटिटी क्राइसस से जुझ रहे लोगों का प्रयास माना जा सकता है। इन चीजों के बनने का सरना धम क मूल्यों में हास होगा और इसका अनूठापन खत्म होगा। सरना धर्म में विचार, चिंतन की स्वतंत्रता उपलब्ध है। वे भी स्वतंत्र हैं अपने धार्मिक चितन का एक रूप देने के लिए। लेकिन ऐसे परिवर्तन को सरना कहना, एक मजाक क सिवा कुछ नहीं है। सरना किसी मूर्ति, चिन्ह, तस्वीर या मठ का मोहताज नहीं है। फिर यह भी दूसरे धर्म की धार्मिक बुराईयों का शिकार हो जाएगा। यदि सरना के दर्शन के शब्दों में कहा जाए तो यह सब चिन्ह अपनी आईडेंटिटी गढ़ने, रचने और उसके द्वारा व्यैयक्तिक पहचान बनाने के कार्य हैं, जिसका इस्तेमाल, सामाजिक व राजनैतिक, सांस्कृतिक और वैचारिक साम्राज्य गढ़ने और वर्चस्व स्थापित करने के लिए एक हथियार के रूप में किया जाता रहा है। ऐसे चीजों का अपना एक बाजार होता है और उसके सैकड़ों लाभ मिलते हैं, लेकिन सरना दर्शन, सोच, विचार, विश्वास, मान्यता से कोई संबंध नहीं है।
कुल मिला कर यही कहा जा सकता है कि सरना एक अमूर्त शक्ति को मानता है और सीमित रूप से उसका आराधना करता है। लेकिन इस आराधना को वह सामाजिक, राजनैतिक, और आर्थिक रूप में नहीं बदलता है। वह आराधना करता है लेकिन उसके लिए किसी तरह के शीशेबाजी नहीं करता है। यदि वह करता है तो फिर वह कैसे सरना? लेकिन किसी मत को कोई मान सकता है और नहीं भी, क्योंकि व्यक्ति के पास अपना विवेक होता है और यह विवेक ही उसे अन्य प्राणी से अलग करता है, विवेकवान होने के कारण अपनी अच्छाईयों को पहचान सकता हैं सब अच्छाईयां, कल्याणकारी पथ खोजने के लिए स्वतंत्र है। इंसान की इसी स्वतंत्रता की जय जयकार हर युग में हर तरफ हुई है।
सरना संघ (Sarna Union)
ऑल इंडिया सरना धर्म‘ उड़ीसा के मयूरभंज जिला में स्थित है। इस संघ के माध्यम से देश के विभिन्न भागों जैसे–झारखंड, उडीसा बंगाल, मध्यप्रदेश आदि में ड्रम और अन्य उपकरणों (तुमडी, तमक. घुरी, सार खडां तरवाले आदि) के साथ जूलूस एवं प्रर्दशनी का आयोजन किया जाता है जिसका मुख्य उद्देश्य राज्य एवं केन्द्र सरकारों तक अपनी विलुप्त होती संस्कृति एवं परम्परा को बचाके रखने हेत उचित प्रयास के लिए अपनी आवाज को पहुचाना था। इस संघ का अपना नियम एवं आदेश है जो कि कैबिनेट कमिटि द्वारा लागू किया गया है और सभी साना लोग इसे मानते हैं। संघ अपने नियमों और आदेशों को सरना लोगों के बीच प्रचारित करने के लिए सेमिनार और सभाओं का आयोजन भी करता है। अनेक ऐसी चेरिटेबल संस्थाएं है जो चिकित्सीय सुविधाएं उपलब्ध कराते है, वे अनेक स्कूलों और कॉलेजों का भी संचालन करते हैं।