लैटेराइट मिट्टी लैटेराइट एक लैटिन शब्द ‘लेटर’ से बना है, जिसका शाब्दिक अर्थ ईंट होता है। लैटेराइट मिट्टी उच्च तापमानऔर भारी वर्षा के क्षेत्रों में विकसित होती हैं। ये मिट्टी उष्ण कटिबंधीय वर्षा के कारण हुए तीव्र निक्षालन का परिणाम हैं। वर्षा के साथ चूना और सिलिका तो निक्षालित हो जाते हैं तथा लोहे के ऑक्साइड और अल्यूमीनियम के यौगिक से भरपूर मिट्टी शेष रह जाती हैं। उच्च तापमानों में आसानी से पनपने वाले जीवाणु ह्यूमस की मात्रा को तेजी से नष्ट कर देते हैं। इन मृदाओं में जैव पदार्थ, नाइट्रोजन, फ़ॉस्फेट और कैल्सियम की कमी होती है तथा लौह-ऑक्साइड और पोटाश की अधिकता होती है। परिणामस्वरूप लैटेराइट मिट्टी कृषि के लिए पर्याप्त उपजाऊ नहीं हैं। फसलों के लिए उपजाऊ बनाने के लिए इन मृदाओं में खाद और उर्वरकों की भारी मात्रा डालनी पड़ती है।
तमिलनाडु, आंध्र प्रदेश और केरल में काजू जैसे वृक्षों वाली फसलों की खेती के लिए लाल लैटेराइट मिट्टी अधिक उपयुक्त हैं।
मकान बनाने के लिए लैटेराइट मृदाओं का प्रयोग ईंटें बनाने में किया जाता है। इन मृदाओं का विकास मुख्य रूप से प्रायद्वीपीय पठार के ऊँचे क्षेत्रों में हुआ है। लैटराइट मिट्टी सामान्यतः कर्नाटक, केरल, तमिलनाडु मध्य प्रदेश तथा ओडिशा और असम के पहाड़ी क्षेत्रों में पाई जाती हैं।
- 4.5% क्षेत्र शामिल हैं
- गीला-शुष्क मौसम
- वर्षा के साथ चूना और सिलिका का निक्षालन– शीर्ष परत में लोहे के ऑक्साइड और अल्यूमीनियम के यौगिक से भरपूर मिट्टी शेष रह जाती हैं
- अम्लीय मिट्टी
- वनों की कटाई, खनन और वृक्षारोपण पर तेजी से क्षरण
- कृषि के लिए उपयुक्त नहीं लेकिन उपउष्ण कटिबंध क्षेत्र फसल के लिए उपयुक्त है : टैपिओका और काजू जैसी फसलें
- लोहे में समृद्ध – उर्वरकों के साथ चाय, कॉफी और रबर बागान के लिए उपयुक्त
- बॉक्साइट में समृद्ध : पूर्वी घाट, तेलंगाना और कर्नाटक पठार